दुनिया में ऐसे कई वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनका मन बिल्ली के रास्ता काटने पर आज भी शंकाग्रस्त हो उठता हैं कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं होगी?
दुनिया में ऐसे कई वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर जैसे पढ़े-लिखे लोग हैं, जिनका मन बिल्ली के रास्ता काटने पर आज भी शंकाग्रस्त हो उठता हैं कि कहीं कोई अनहोनी तो नहीं होगी? घर से निकलते वक्त छींक आने पर मन में आशंका होने लगती हैं कि कुछ अमंगल तो नहीं होगा? अंधविश्वास सिर्फ़ हमारे देश में ही हैं ऐसा नहीं हैं। हर देश में अपनी-अपनी मान्यता नुसार अपने-अपने अंधविश्वास हैं। सवाल यह हैं कि पढ़ा-लिखा इंसान भी क्यों और कैसे अंधविश्वासी बनता हैं? मेरी एक पोस्ट हैं, सर के बाल कब धोऊ? (नीले रंंग पर क्लिक करके आप यह पोस्ट पढ़ सकते हैं) वास्तव में जैसे हम शरीर के अन्य अंग धोते हैं ठीक वैसे ही बाल भी धो सकते हैं। लेकिन अभी तक मतलब कि 18-11-2019 तक इसे 66,000 बार पढ़ा गया हैं। इसका मतलब तो यहीं हुआ न कि इंटरनेट का उपयोग करनेवाली पढ़ी-लिखी महिलायें भी कितने अंधविश्वासों में जकड़ी हुई हैं!!!
पढ़े-लिखे इंसानों का भी अंधविश्वासी होने का कारण उनकी परवरिश में छिपा हुआ हैं। बचपन में अपने परिवार और आसपास के माहौल में इंसान जो कुछ देखता हैं, वो सब बातें उसके अवचेतन मन में गहरे तक बैठ जाती हैं। बचपन की इन्हीं सही-गलत बातों को इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ सही मानने लगता हैं। जब इंसान बड़ा होकर पढ़ता-लिखता हैं, तो वो दुविधाग्रस्त हो जाता हैं कि सही क्या हैं और गलत क्या हैं! बचपन में वो देखता हैं कि घर का कोई भी सदस्य जब घर से बाहर जा रहा हो और ऐसे में यदि किसी को छींक आ जाएं, तो इसे अपशकुन माना जाता हैं। ऐसे में दो मिनट रूक कर फ़िर बाहर जाना चाहिए नहीं तो अमंगल होने की आशंका रहती हैं। इस बात को कई बार देखने-सुनने पर यह बात उसके मन में घर करके बैठ जाती हैं। पढने-लिखने के बाद छींक आने का वैज्ञानिक कारण उसे पता चलता हैं कि छींक वह क्रिया हैं जिसमें फेफडों से हवा नाक और मुंह के रास्ते अत्यधिक तेजी से बाहर निकलती हैं। जब हमारे नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती हैं, तब छींक आती हैं। मतलब छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया हैं और इसका शकुन-अपशकुन से कोई वास्ता नहीं हैं। ऐसे में जो पढ़े-लिखे लोग, पढ़े हुए पर चिंतन-मनन करते हैं, वे तो छींक आने को सामान्य क्रिया मानने लगते हैं। लेकिन उन में से भी कुछ लोगों के साथ यदि कभी ऐसा हुआ हो कि वे कभी किसी शुभ कार्य के लिए बाहर जा रहे हो और किसी को छींक आ गई और दुर्भाग्यवश उस दिन उनका कार्य सफल नहीं हुआ तो ऐसे में इन पढ़े-लिखे लोगों को भी विज्ञान से ज्यादा बचपन में सुनी हुई बातों पर विश्वास होने लगता हैं क्योंकि उस वक्त इंसान कार्य की असफलता से परेशान रहता हैं, इसी परेशानी में सही या गलत की पहचान नहीं कर पाता। इस विषय पर मेरी पोस्ट क्या छींक आने से अपशकुन होता हैं? पढ़े।
मैं मेरे स्वयं के साथ हुई एक घटना का उल्लेख करूंगी। मैं बचपन से देखती-सुनती आ रही थी कि माहवारी में महिलाओं ने छुआछुत नहीं करना चाहिए। छुआछुत करने से पाप लगता हैं, अगले जन्म में हो सकता हैं कि वो कुतिया की योनी में पैदा हो! इस पाप से निजात पाने के लिए ऋषी पंचमी का व्रत करने की सलाह भी दी जाती हैं। मेरे मायके में हम माहवारी के दिनों में खाना बनाना तो बहुत दूर की बात हैं, छुआछुत बिल्कुल भी नहीं करते थे! मेरे सभी परिचितों और रिश्तेदारों के यहां ऐसे ही होता था। ससुराल में मेरी माहवारी आने पर मेरी सासु-माँ (उम्रदराज होने से) खाना नहीं बना पा रही थी। तो शादी के दो साल बाद उन्होंने मुझे माहवारी में भी खाना बनाने कहा। अब बड़ों ने कहा हैं तो मुझे खाना तो बनाना ही था। लेकिन मेरे मन में एक तरह का अपराध बोध पनपने लगा कि माहवारी के समय खाना बनाने से मुझे पाप तो नहीं लगेगा? ऋषी पंचमी व्रत की कथा के अनुसार मैं अगले जन्म में कुतिया तो नहीं बनूंगी? कई दिनों तक इन विचारों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। तब मैं ने इस विषय पर अध्ययन किया...इंटरनेट पर कई लेख पढ़े। सच्चाई पता चली कि माहवारी एक सामान्य नैसर्गिक क्रिया हैं। यदि किसी महिला को माहवारी नहीं हुई तो वो माँ नहीं बन सकती। जिस रज से इंसान (चाहे वह नर हो या नारी) का शरीर बनता है उसे ही हम अपवित्र कैसे मान सकते है? जो चीज ज़रुरी हैं, नैसर्गिक हैं...उसे हम अपवित्र कैसे मान सकते हैं? तब जाकर मन से इस अंधविश्वास का भूत उतरा। इस विषय पर मेरी पोस्ट क्या माहवारी (पीरियड्स) से होना नारी का गुनाह या पाप है?? पढ़े।
हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि धरती शेषनाग पर टिकी हुई हैं और जब शेषनाग करवट बदलता हैं, तो वह हिलने लगती हैं और इसी से भुकंप आता हैं। जब इंसान पढ़ता-लिखता हैं तो उसे पता चलता हैं कि पूरी धरती 12 टैक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है। इसके नीचे तरल पदार्थ लावा है। ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं और इनके टकराने से ऊर्जा निकलती हैं जिससे भुकंप आता हैं।
विज्ञान तर्क के आधार पर किसी भी बात को जांचता-परखता हैं। जबकि धर्म से जुडी किताबे सिर्फ़ बातों का पुलिंदा होती हैं, जिन में अंधविश्वास भरा होता हैं। इस तरह हर इंसान बचपन से देखी-सुनी बातें और वैज्ञानिक सच में से किसे सच माने इस दुविधा में फंसा रहता हैं।
मीडिया भी जिम्मेदार-
जिस तरह सरकार एक तरफ सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी लिखवाती हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं और दूसरी तरफ इनको बनाने का, बेचने का लायसंस भी जारी करती हैं! ठीक उसी तरह मीडिया भी एक तरफ अंधविश्वास की ख़बरों को दिखा कर उसका विरोध करता हैं तो दूसरी तरफ अखबारों और चैनलों में राशिफल प्रकाशित करता हैं और तांत्रिक एवं बाबाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन दिखाता हैं। विज्ञापनों में ये लोग ऐसा दिखाते हैं कि इन बाबाओं के पास हर समस्या का समाधान तैयार रहता हैं। हर इंसान अपनी समस्याओं से जल्द से जल्द मुक्ति पाना चाहता हैं। इसलिए लोग इन विज्ञापनों के जाल में फंस जाते हैं। जो पढ़ा-लिखा इंसान पढ़ी हुई बातों पर चिंतन-मनन करता हैं, वो इंसान अंधविश्वास के मकडजाल से निकल जाता हैं। लेकिन जो इंसान ऐसा नहीं करता वो हाथी की तरह हो जाता हैं। मतलब जिस तरह एक विशालकाय हाथी को उसके बचपन में मजबूत जंजीरों से बांध कर उसे इस बात का एहसास करवाया जाता हैं कि वो इन जंजीरों को नहीं तोड़ सकता। बचपन के इसी एहसास के कारण एक वयस्क विशालकाय हाथी ताउम्र एक पतली सी जंजीर से बंधा रहता हैं!!
इस तरह बचपन से हुई अपनी परवरिश के कारण ही पढ़ा-लिखा इंसान भी अंधविश्वासी बन जाता हैं। दोस्तो, हम हर विषय की दो-दो परिभाषा रखते हैं इसलिए दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। कुछ लोगों का कहना होता हैं कि हमारे पुर्वज ऐसा मानते थे इसलिए हम भी मानेंगे। हमारे पुर्वज कंद-मुल खाकर जंगलों में नग्न रहते थे, तो क्या हम भी कंद-मुल खाकर जंगलों में नग्न घुमेंगे? कहा जाता हैं कि जब जागे तभी सबेरा। अत: अब तो जागरुक बनिये...
Keywords: science and superstitions, superstitious beliefs, superstition mountains, Menstruation, blind faith
पढ़े-लिखे इंसानों का भी अंधविश्वासी होने का कारण उनकी परवरिश में छिपा हुआ हैं। बचपन में अपने परिवार और आसपास के माहौल में इंसान जो कुछ देखता हैं, वो सब बातें उसके अवचेतन मन में गहरे तक बैठ जाती हैं। बचपन की इन्हीं सही-गलत बातों को इंसान सिर्फ़ और सिर्फ़ सही मानने लगता हैं। जब इंसान बड़ा होकर पढ़ता-लिखता हैं, तो वो दुविधाग्रस्त हो जाता हैं कि सही क्या हैं और गलत क्या हैं! बचपन में वो देखता हैं कि घर का कोई भी सदस्य जब घर से बाहर जा रहा हो और ऐसे में यदि किसी को छींक आ जाएं, तो इसे अपशकुन माना जाता हैं। ऐसे में दो मिनट रूक कर फ़िर बाहर जाना चाहिए नहीं तो अमंगल होने की आशंका रहती हैं। इस बात को कई बार देखने-सुनने पर यह बात उसके मन में घर करके बैठ जाती हैं। पढने-लिखने के बाद छींक आने का वैज्ञानिक कारण उसे पता चलता हैं कि छींक वह क्रिया हैं जिसमें फेफडों से हवा नाक और मुंह के रास्ते अत्यधिक तेजी से बाहर निकलती हैं। जब हमारे नाक के अंदर की झिल्ली, किसी बाहरी पदार्थ के घुस जाने से खुजलाती हैं, तब छींक आती हैं। मतलब छींक आना एक सामान्य मानवीय क्रिया हैं और इसका शकुन-अपशकुन से कोई वास्ता नहीं हैं। ऐसे में जो पढ़े-लिखे लोग, पढ़े हुए पर चिंतन-मनन करते हैं, वे तो छींक आने को सामान्य क्रिया मानने लगते हैं। लेकिन उन में से भी कुछ लोगों के साथ यदि कभी ऐसा हुआ हो कि वे कभी किसी शुभ कार्य के लिए बाहर जा रहे हो और किसी को छींक आ गई और दुर्भाग्यवश उस दिन उनका कार्य सफल नहीं हुआ तो ऐसे में इन पढ़े-लिखे लोगों को भी विज्ञान से ज्यादा बचपन में सुनी हुई बातों पर विश्वास होने लगता हैं क्योंकि उस वक्त इंसान कार्य की असफलता से परेशान रहता हैं, इसी परेशानी में सही या गलत की पहचान नहीं कर पाता। इस विषय पर मेरी पोस्ट क्या छींक आने से अपशकुन होता हैं? पढ़े।
मैं मेरे स्वयं के साथ हुई एक घटना का उल्लेख करूंगी। मैं बचपन से देखती-सुनती आ रही थी कि माहवारी में महिलाओं ने छुआछुत नहीं करना चाहिए। छुआछुत करने से पाप लगता हैं, अगले जन्म में हो सकता हैं कि वो कुतिया की योनी में पैदा हो! इस पाप से निजात पाने के लिए ऋषी पंचमी का व्रत करने की सलाह भी दी जाती हैं। मेरे मायके में हम माहवारी के दिनों में खाना बनाना तो बहुत दूर की बात हैं, छुआछुत बिल्कुल भी नहीं करते थे! मेरे सभी परिचितों और रिश्तेदारों के यहां ऐसे ही होता था। ससुराल में मेरी माहवारी आने पर मेरी सासु-माँ (उम्रदराज होने से) खाना नहीं बना पा रही थी। तो शादी के दो साल बाद उन्होंने मुझे माहवारी में भी खाना बनाने कहा। अब बड़ों ने कहा हैं तो मुझे खाना तो बनाना ही था। लेकिन मेरे मन में एक तरह का अपराध बोध पनपने लगा कि माहवारी के समय खाना बनाने से मुझे पाप तो नहीं लगेगा? ऋषी पंचमी व्रत की कथा के अनुसार मैं अगले जन्म में कुतिया तो नहीं बनूंगी? कई दिनों तक इन विचारों ने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। तब मैं ने इस विषय पर अध्ययन किया...इंटरनेट पर कई लेख पढ़े। सच्चाई पता चली कि माहवारी एक सामान्य नैसर्गिक क्रिया हैं। यदि किसी महिला को माहवारी नहीं हुई तो वो माँ नहीं बन सकती। जिस रज से इंसान (चाहे वह नर हो या नारी) का शरीर बनता है उसे ही हम अपवित्र कैसे मान सकते है? जो चीज ज़रुरी हैं, नैसर्गिक हैं...उसे हम अपवित्र कैसे मान सकते हैं? तब जाकर मन से इस अंधविश्वास का भूत उतरा। इस विषय पर मेरी पोस्ट क्या माहवारी (पीरियड्स) से होना नारी का गुनाह या पाप है?? पढ़े।
हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि धरती शेषनाग पर टिकी हुई हैं और जब शेषनाग करवट बदलता हैं, तो वह हिलने लगती हैं और इसी से भुकंप आता हैं। जब इंसान पढ़ता-लिखता हैं तो उसे पता चलता हैं कि पूरी धरती 12 टैक्टोनिक प्लेटों पर स्थित है। इसके नीचे तरल पदार्थ लावा है। ये प्लेटें इसी लावे पर तैर रही हैं और इनके टकराने से ऊर्जा निकलती हैं जिससे भुकंप आता हैं।
विज्ञान तर्क के आधार पर किसी भी बात को जांचता-परखता हैं। जबकि धर्म से जुडी किताबे सिर्फ़ बातों का पुलिंदा होती हैं, जिन में अंधविश्वास भरा होता हैं। इस तरह हर इंसान बचपन से देखी-सुनी बातें और वैज्ञानिक सच में से किसे सच माने इस दुविधा में फंसा रहता हैं।
मीडिया भी जिम्मेदार-
जिस तरह सरकार एक तरफ सिगरेट के पैकेट पर चेतावनी लिखवाती हैं कि सिगरेट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं और दूसरी तरफ इनको बनाने का, बेचने का लायसंस भी जारी करती हैं! ठीक उसी तरह मीडिया भी एक तरफ अंधविश्वास की ख़बरों को दिखा कर उसका विरोध करता हैं तो दूसरी तरफ अखबारों और चैनलों में राशिफल प्रकाशित करता हैं और तांत्रिक एवं बाबाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन दिखाता हैं। विज्ञापनों में ये लोग ऐसा दिखाते हैं कि इन बाबाओं के पास हर समस्या का समाधान तैयार रहता हैं। हर इंसान अपनी समस्याओं से जल्द से जल्द मुक्ति पाना चाहता हैं। इसलिए लोग इन विज्ञापनों के जाल में फंस जाते हैं। जो पढ़ा-लिखा इंसान पढ़ी हुई बातों पर चिंतन-मनन करता हैं, वो इंसान अंधविश्वास के मकडजाल से निकल जाता हैं। लेकिन जो इंसान ऐसा नहीं करता वो हाथी की तरह हो जाता हैं। मतलब जिस तरह एक विशालकाय हाथी को उसके बचपन में मजबूत जंजीरों से बांध कर उसे इस बात का एहसास करवाया जाता हैं कि वो इन जंजीरों को नहीं तोड़ सकता। बचपन के इसी एहसास के कारण एक वयस्क विशालकाय हाथी ताउम्र एक पतली सी जंजीर से बंधा रहता हैं!!
इस तरह बचपन से हुई अपनी परवरिश के कारण ही पढ़ा-लिखा इंसान भी अंधविश्वासी बन जाता हैं। दोस्तो, हम हर विषय की दो-दो परिभाषा रखते हैं इसलिए दुविधाग्रस्त हो जाते हैं। कुछ लोगों का कहना होता हैं कि हमारे पुर्वज ऐसा मानते थे इसलिए हम भी मानेंगे। हमारे पुर्वज कंद-मुल खाकर जंगलों में नग्न रहते थे, तो क्या हम भी कंद-मुल खाकर जंगलों में नग्न घुमेंगे? कहा जाता हैं कि जब जागे तभी सबेरा। अत: अब तो जागरुक बनिये...
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आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 22 नवम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंमेरी रचना को "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, यशोदा दी।
हटाएंअच्छी प्रेरक प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंकई बार व्यक्ति अपने अंदर मौजूद असुरक्षा के भावों के कारण भी अंधविश्वासों को मानने लगता है। डर भी व्यक्ति को ज्यादा अंशविश्वासी बना देता है। खैर, हमें तर्क को वरीयता देनी चाहिए। चीजों को तर्क की कसौटी पर परखना चाहिए और अगर वो तार्किक हैं तभी उन्हें मानना भी चाहिए। एक प्रेरक लेखक। आभार।
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
24/11/2019 रविवार को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में. .....
सादर आमंत्रित है......
अधिक जानकारी के लिये ब्लौग का लिंक:
http s://www.halchalwith5links.blogspot.com
धन्यवाद
मेरी रचना को पांच लिंको का आनंद में शामिल करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद, कुलदीप भाई।
हटाएंअन्ध्विशासी होने के लिए बढ़ना लिखना कोई वजह होना न होना नहीं ...
जवाब देंहटाएंये रोग अक्सर इंसान जब कमजोर होता है वैचारिक धरातल पर तब लग जाता है ...
वाह!
जवाब देंहटाएंआदरणीया मैम बहुत सुंदर,सार्थक प्रस्तुति।
सच ही कहा आपने बचपन में अंधविश्वास का बीजारोपण हो जाता है जो समय के साथ बढ़ता जाता और समाज को अंधकार की ओर ले जाता है। इसलिए आज लोगों को तर्क करना सीखना होगा क्योंकि तर्क संगत होकर ही अंधविश्वास से बचना संभव है।
महत्वपूर्ण संदेश देती सार्थक प्रस्तुति। सादर नमन शुभ संध्या 🙏
सही आँचल दी कि यदि अंधविश्वास से मुक्ति पानी हैं तो इंसान को तर्कसंगत होना होगा।
हटाएंइस टिप्पणी को एक ब्लॉग व्यवस्थापक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपके विचार पूर्णरूपेण सही हैं आदरणीया ज्योति जी । बस मैं एक तथ्य और जोड़ना चाहूंगा । कई व्यक्ति जो आरम्भ में अंधविश्वासी नहीं होते, वे भी जीवन के किसी मोड़ पर अंधविश्वासी हो जाते हैं जिसका कारण लगातार हुए नकारात्मक (या सकारात्मक भी) अनुभवों के कारण उत्पन्न धारणाएं होती हैं । अंधविश्वासों से बचना हो या उनसे छुटकारा पाना हो, यह व्यक्ति के अपने हाथ में ही होता है, कोई दूसरा इस कार्य में उसकी सहायता नहीं कर सकता ।
जवाब देंहटाएंसही कहा जितेंद्र भाई कि अंधविश्वासों से बचना हो या उनसे छुटकारा पाना हो, यह व्यक्ति के अपने हाथ में ही होता है, कोई दूसरा इस कार्य में उसकी सहायता नहीं कर सकता ।
हटाएंबहुत हीं सार्थक विवेचना ज्योति जी !
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